How Hindi films highlighted Mangalsutra as a symbol of Hindutva? | HINDI MOVIES | BOLLYWOOD

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लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हिंदू महिलाओं के मंगलसूत्र को ध्रुवीकरण की राजनीति का केंद्र बिंदु बना दिया। मंगलसूत्र और अन्य पारंपरिक प्रतीकों के माध्यम से एक आदर्श हिंदू विवाहित महिला की एक छवि गढने में हिंदी सिनेमा की बडी अहम भूमिका रही है। खास तौर पर उत्तर भारतीय हिंदू समाज में फिल्मों के जरिये गढी गई इस छवि की वजह से एक अलग तरह का कट्टरवाद और बाजारवाद को बढावा मिला है जो कट्टरपंथी राजनीति का भी हथियार बना । सिनेमा संवाद में इस बार बात “मंगलसूत्र” वाले हिंदुत्व के फिल्मी कनेक्शन पर बातचीत।चर्चा में शामिल हैं वरिष्ठ फिल्म विश्लेषक प्रोफेसर जवरीमल पारख, वरिष्ठ फिल्म समीक्षक अजय ब्रह्मात्मज , कथा-पटकथा लेखक स्वेक्षा भगत और टिप्पणीकार सौम्या बैजल। चर्चा का संचालन कर रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार अमिताभ श्रीवास्तव।

Mangalsutra, an ornament considered important for married Hindu women , was recently brought into political debate during ongoing loksabha elections when Prime Minister Narendra Modi lashed out at rival congress party. Hindi Indian films have played an important role in making Mangalsutra famous as part of women identity. Cinema Samvad looks into this aspect of Hindi films in this episode. The panelists are veteran film scholar Professor Jawarimal Parakh, Senior film critic Ajay Bramhatmaj, noted columnist Saumya Baijal and writer of many award winning television shows and series Sweksha Bhagat. The discussion is moderated by senior journalist Amitaabh Srivastava.

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Did Cinema learn any lesson from Emergency? । BOLLYWOOD FILMS । HINDI MOVIES

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25 जून भारतीय राजनीति के इतिहास में काला दिन कहा जाता हैं क्योंकि इस तारीख को इंदिरा गांधी ने 1975 में औपचारिक तौर पर देश में आपातकाल लगाकर अभिव्यक्ति की आजादी के मौलिक अधिकार पर पाबंदी लगा दी थी। कला, साहित्य, सिनेमा , पत्रकारिता से जुडे लोग इससे सीधे तौर पर प्रभावित हुए थे। जिन लोगों ने सरकार की तानाशाही का विरोध किया था, उनको तरह-तरह से प्रतिबंध झेलन�� पड़े। किशोर कुमार के गाने रेडियो पर प्रसारित नहीं किये गये। देव आनंद की फिल्मों और गीतों का प्रसारण भी रोक दिया गया था। सरकार से नाराज देव आनंद ने तो प्रतिरोध के तौर पर एक अलग पार्टी ही बना ली थी। 48 साल बाद आज देश में अघोषित आपातकाल जैसे माहौल की बात कही जा रही है। समाचार मीडिया के साथ-साथ सिनेमा भी पिछले एक दशक में सरकार की विचारधारा के प्रसार का एक प्रमुख हथियार बन कर उभरा है। सिनेमा संवाद में इस बार चर्चा राजनीति और सिनेमा के रिश्तों पर। सवाल -सिनेमा ने इमर्जेंसी से क्या सीखा? बातचीत में शामिल हैं हिंदी सिनेमा के बहुत कामयाब पटकथा लेखक कमलेश पांडेय, वरिष्ठ फिल्म विश्लेषक प्रोफेसर जवरीमल पारख और मनमोहन चड्ढा , प्रोफेसर इरा भास्करऔर वरिष्ठ फिल्म समीक्षक अजय ब्रम्हात्मज। चर्चा का संचालन कर रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार अमिताभ श्रीवास्तव।

48 years ago on 25th June 1975 when the then Prime Minister Indira Gandhi imposed emergency and curbed fundamental rights, it badly affected the freedom of expression of journalists and people from the world of art and literature including those from Conema. Did our Cinema learn any lessons from the emergency? Cinema Samvad focuses on this issue in this episode. The panelists are veteran film script writer Kamlesh Pandey, Film scholar Professor Jawarimal Parakh, Cinema educator Ira Bhaskar, film analyst Manmohan Chaddha and senior film critic Ajay Bramhatmaj. The discussion is moderated by senior journalist Amitaabh Srivastava.

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Why good cinema has few takers? । BOLLYWOOD MOVIES । HINDI FILMS

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अच्छा सिनेमा किसी भी समाज में संवेदनशील मनुष्य और जागरूक नागरिक गढ़ने में मददगार हो सकता है।लेकिन आम तौर पर अच्छे सिनेमा के दर्शक कम पाए जाते हैं। इसका क्या कारण है? इसके लिए कौन जिम्मेदार है- फिल्म निर्माण से जुडे लोग, सरकार की नीतियां या खुद दर्शक वर्ग जो बेसिरपैर की फिल्मों के लिए तो लाइन में लगता है लेकिन अच्छे सिनेमा की अनदेखी करता है? सिनेमा संवाद इस बार इन्हीं सवालों के इर्द-गिर्द। बातचीत में शामिल हैं वरिष्ठ फिल्म विश्लेषक प्रोफेसर जवरीमल पारख, मनमोहन चड्ढा और मैथिली राव और फिल्म लेखक धनंजय कुमार। चर्चा का संचालन कर रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार अमिताभ श्रीवास्तव।

Why good cinema has few takers in our society? Who is responsible for this- the film industry, the government or the audiences themselves? Cinema Samvad focuses on this issue in this episode. The panelists are veteran film analysts Professor Jawarimal Parakh, Manmohan Chaddha, Maithili Rao and film writer Dhananjay Kumar. The discussion is moderated by senior journalist Amitaabh Srivastava.

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Is OTT overpowering Cinema? । BOLLYWOOD FILMS । OTT PLATFORMS । HINDI MOVIES

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ओटीटी मंचों पर आ रही सामग्री की विविधता सिनेमा के लिए किस तरह की चुनौती पेश कर रही है? क्या सिनेमा पर भारी पड़ रहा है ओटीटी ? इस बार सिनेमा संवाद  में बातचीत तमाम ओटीटी मंचों पर उपलब्ध मनोरंजन के बारे में। चर्चा में शामिल  हैं वरिष्ठ फिल्म विश्लेषक प्रोफेसर जवरीमल पारख, वरिष्ठ फिल्म समीक्षक अजय ब्रह्मात्मज, अभिनेता पंकज झा कश्यप और भरत झा। चर्चा  का संचालन कर  रहे  हैं वरिष्ठ पत्रकार अमिताभ श्रीवास्तव।

The diversity of content available on various OTT platforms is a boon for the viewers but it is offering a serious competition to the movie makers. Is  OTT overpowering Cinema ? What are the challenges for movie makers after the emergence of OTT? Cinema Samvad focuses on this issue in this episode.  The panelists are veteran film scholar Professor Jawarimal Parakh,  Senior film journalist Ajay Bramhatmaj, actor Pankaj Jha Kashyap and casting director Bharat Jha. The discussion is moderated by senior journalist Amitaabh Srivastava.

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Should Cinema be political? । BOLLYWOOD FILMS । HINDI MOVIES

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पिछले कुछ समय से हमारे सिनेमा, खास तौर पर मसाला मुंबईया फिल्मों के बारे में काफी तीखी राजनीति देखने को मिली है। समाज में भी फिल्मों, कलाकारों और फिल्मकारों को लेकर उग्र आवाजें तेज़ हुई हैं। सिनेमा और राजनीति के मुद्दे पर फिल्म इंडस्ट्री भी बंटी हुई दिखती है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि क्या सिनेमा को किसी तरह की राजनीति से प्रेरित या प्रभावित होना चाहिए? क्या सिनेमा को राजनैतिक होना चाहिए?मनोरंजन की कोई राजनीति होती है क्या? क्या बिल्कुल अराजनैतिक सिनेमा संभव हो सकता है? इस बार सिनेमा संवाद इन्ही सवा��ों के इर्द-गिर्द। बातचीत में शामिल  हैं हिंदी फिल्मों के बहुत प्रतिष्ठित और बेहद सफल पटकथा लेखक कमलेश पांडेय, फिल्म स्कॉलर प्रोफेसर जवरीमल पारख,  वरिष्ठ फिल्म समीक्षक अजय ब्रम्हात्मज और फिल्म लेखक धनंजय कुमार। चर्चा का संचालन कर रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार अमिताभ श्रीवास्तव।

For quite sometime our cinema, specially mainstream Hindi films have become a subject of volatile on ground politics. There are aggressive voices from the society favouring or opposing  certain films,  film makers and actors. This raises seceral questions related to politics of Cinema. Should Cinema be political? Is any apolitical Cinema possible? Cinema Samvad focuses on this issue in this episode.  The panelists are veteran scrpit writer Kamlesh Pandey, film scholar and author Professor Jawarimal Parakh,  senior film critic Ajay Bramhatmaj and film writer Dhananjay Kumar.  The discussion is moderated by senior journalist Amitaabh Srivastava. 

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