सौ साल से भी पुराने भारतीय सिनेमा में कहानियां कहने के मामले में ज्यादातर पुरुषों का ही दबदबा रहा है, परदे पर और परदे के पीछे भी। आजादी के बाद के 75 सालों में महिला निर्देशकों ने भी अपने काम की बदौलत एक अलग जगह और रुतबा हासिल किया है। सई परांजपे, अपर्णा सेन से लेकर कल्पना लाजमी, मेघना गुलज़ार, रेवती , नंदिता दास और ज़ोया अख्तर की फिल्में अच्छे मनोरंजन के साथ साथ अपनी विशेष दृष्टि की छाप भी छोडती हैं। इस बार सिनेमा संवाद में चर्चा स्त्री की दृष्टि से सिनेमा की। इस बातचीत में शामिल हैं फिल्म विश्लेषक मैथिली राव,सौम्या बैजल,रत्नोत्तमा सेनगुप्ता, एन विद्याशंकर ,कविता षन्मुगम् और शांतनु चौधरी। चर्चा का संचालन कर रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार अमिताभ श्रीवास्तव।
More than a century old Indian Cinema has been a male dominated field since the beginning both in front on the screen and behind it. Despite the growing importance of female characters and female actors, the story tellers were mostly men. Attempts to break that tradition started bearing results only after independence with the emergence of names of Sai Paranjape, Aparna Sen, Kalpana Lajmi, Mira Nair, Deepa Mehta, Prema Karanth, Bhanumathi, Meghna Gulzar, Nandita Das, Zoya Akhtar. Does a female director bring a different sensibility to the storytelling? Cinema Samvad to discuss this issue in this episode. The distinguished panelists are Maithili Rao , Ratnottama Sengupta, Kavita Shanmugham, Saumya Baijal , N Vidyashankar and Shantanu Ray Chaudhari. The discussion is moderated by senior journalist Amitaabh Srivastava.
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